000 | 03086nam a2200265 4500 | ||
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999 |
_c38414 _d38414 |
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020 | _a9788180312984 | ||
041 | _ahin- | ||
082 |
_a305.50954 _bSAN-M |
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100 | 1 |
_aसांकृत्यायन, राहुल _qSankrityayan, Rahul |
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245 | 1 | 0 |
_aमानव-समाज / _cराहुल सांकृत्यायन |
246 | _aMaanav-Samaaj | ||
260 |
_aप्रयागराज : _bलोकभारती प्रकाशन, _c2016. |
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300 | _a251p. | ||
504 | _aIncludes bibliographical references and index. | ||
520 | _aमानव मनुष्य-समाज से अलग नहीं रह सकता था, अलग रहने पर उसे भाषा से ही नहीं चिन्तन से भी नाता तोड़ना होता, क्योंकि चिन्तन ध्वनिरहित शब्द है। मनुष्य की हर एक गति पर समाज की छाप है। बचपन से ही समाज के विधि-निषेधों को हम माँ के दूध के साथ पीते हैं, इसलिए हम उनमें से अधिकांश को बन्धन नहीं भूषण के तौर पर ग्रहण करते हैं, किन्तु, वह हमारे कायिक, वाचिक कर्मों पर पग-पग पर अपनी व्यवस्था देते हैं, यह उस वक्त मालूम हो जाता है, जब हम किसी को उनका उल्लघंन करते देख उसे असभ्य कह उठते हैं। सीप में जैसे सीप प्राणी का विकास होता है उसी प्रकार हर एक व्यक्ति का विकास उसके सामाजिक वातावरण में होता है। मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा अपने परिवार, ठाठ-बाट, पाठशाला, क्रीड़ा तथा क्रिया के क्षेत्र में और समाज द्वारा विकसित भाषा को लेकर होती है। 'मानव समाज' हिन्दी में अपने ढंग की अकेली पुस्तक है। हिन्दी और बँगला पाठकों के लिए यह बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। | ||
546 | _aHindi. | ||
650 | _aसामाजिक वर्ग. | ||
650 | _aभारत. | ||
650 | _aसामाजिक इतिहास. | ||
650 | _aनागरिक आधिकार. | ||
650 | _aवर्ग चेतना. | ||
650 | _aसाम्यवाद और समाज. | ||
650 | _aगुजराती साहित्य. | ||
942 |
_2ddc _cBK |