भारतीय समाज (समाजशास्त्र रीडर-iii)/ नरेश भार्गव; वेददानन सुधीर;अरुण चतुर्वेदी;संजय लोढ़ा
Contributor(s): भार्गव,नरेश [संपादक] | वेददानन सुधीर [संपादक] | अरुण चतुर्वेदी [संपादक] | संजय लोढ़ा [संपादक].
Publisher: जयपुर: रावत, 2021Description: xxi,349p. Include References.ISBN: 9788131611746.Other title: BHARTIYA SAMAJ (Samajshastra Reader-III).Subject(s): सामुदायिक विकास | सामाजिक परिवर्तनDDC classification: 301.4054Item type | Current location | Collection | Call number | Status | Date due | Barcode |
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Books | NASSDOC Library | हिंदी पुस्तकों पर विशेष संग्रह | 301.4054 BHA- (Browse shelf) | Available | 54142 |
CONTENTS 1 भारतीय समाज का उद्भव : सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम / के.एल. शर्मा 2 भारतवर्ष का समाजशास्त्रीय विश्लेषण / ए.आर. देसाई 3 भारतीय जनता की रचना / रामधारी सिंह दिनकर 4 विविधता और एकता / श्यामाचरण दुबे 5 आदमी का प्रतिबिम्ब : भारत के समाजशास्त्र में विचारधारा और सिद्धांत / योगेन्द्र सिंह 6 हिन्दू संयुक्त परिवार / के.एम. कापड़िया 7 भारतीय परिवार की प्रक्रिया में बिखराव का चरण / ए.एम. शाह 8 पारिवारिक सम्बन्ध-सूत्र / श्यामाचरण दुबे 9 हिन्दू विवाह : एक संस्कार / के.एम. कापड़िया 10 इस्लाम में विवाह / के.एम. कापड़िया 11 नातेदारी, परिवार एवं वंशानुक्रम / रॉबिन फॉक्स 12 ग्रामीण नगरीय भेद / ए.आर. देसाई 13 ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था / राम आहूजा 14 भारत के ग्रामीण समाज का बदलता हुआ रूप / ए.आर. देसाई 15 ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के सामाजिक पक्ष / मोहन आडवाणी 16 ए.आर. देसाई का योगदान / एस.एल. दोषी 17 ग्रामीण-नगर नैरन्तर्य का भारतीय संदर्भ में पुनर्मूल्यांकन / टी.के. ओमन 18 नगरीकरण की प्रक्रिया और नगरवाद / वी.एन. सिंह
प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र में निवासरत समाज की अपनी एक विशिष्ट पहचान होती है। शताब्दियों से भारत में विभिन्न नृजाति समूह विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से आते रहे हैं और एक-दूसरे से मिलकर भारतीय सामाजिक संरचना का निर्माण करते रहे हैं और आज वे भारतीय समाज का अभिन्न अंग बन गये हैं। इसी प्रक्रिया में भारतीय परिवेश में विचित्र विरोधाभास भी पैदा हुए हैं। समाज में मान्यताओं, विश्वासों और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद भी कई सूत्र ऐसे हैं जिन्होंने हमारे समाज को एकता के सूत्र में पिरोया है। भारत और भारतीय समाज की छवियों के परिप्रेक्ष्य समय और काल के अनुसार बदलते रहे हैं। भारतीय समाज से जुड़े कुछ प्रश्न सदैव विचारणीय रहे हैं कि भारतीय सामाजिक संरचना के मूलतत्त्व क्या हैं? इन तत्त्वों को कैसे समझा जाए? भारत जैसा विविधता वाला समाज कैसे एकता के सूत्र में बंधा हुआ है? आदि। इसी तरह सामाजिक संस्थाएँ वे तंत्र हैं, जो समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाते हैं। समाज द्वारा मान्यता प्राप्त परिवार, विवाह, नातेदारी जैसी ये संस्थाएँ उन नियमों से संयोजित हैं जो जीवन को सुचारू रूप से चलाने में मदद करती हैं। इन व्यवस्थाओं के अपने नियम, स्वरूप, प्रकृति, कार्य क्या हैं? ये प्रश्न भी मस्तिष्क में लगातार उभरते रहते हैं। भारतीय समाज को गहराई से समझने के लिए इसके ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों के सन्दर्भों को समझना भी जरूरी है। यह संकलन भारतीय समाज से जुड़े इन्हीं विविध पहलुओं पर रोशनी डालता है। तीन खंडों में विभक्त इस संकलन के कुल 18 उत्कृष्ट अध्याय पाठकों और विद्यार्थियों को भारतीय समाज के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करेंगे।
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