कलम को तीर होने दो: विद्याभूषण
By: विद्याभूषण VidyaBhooshan.
Publisher: नई दिल्ली : ग्रंथ अकादमी, 2023Description: 176p.ISBN: 9789392013331.Other title: Kalam ko teer hone do.Subject(s): Hindi literature | हिंदी साहित्यDDC classification: 891.2 Summary: श-देशांतर तक पसरे हिंदी-संसार में सृजनशीलता का जो केंद्रीय प्रवाह है, उसमें दूरस्थ अंचलों और दिशाओं की लेखकीय ऊर्जा भी विसर्जित होती है, किंतु उस विराट संगम में जानी-मानी नदियों की जलधाराएँ तो यथेष्ट मान-पहचान पाती हैं, मगर अनगिनत प्रपातों और अंत सलिलाओं के अंशदान की लगातार अनदेखी होती आई है। हिंदी सर्जना के आंचलिक परिदृश्य को अगर समग्रता में परखें तो कई बुनियादी सवाल सिर उठाते हैं; जैसे क्या श्रेष्ठ और प्रभावी कृतियों की अंतर्वस्तु का कोई स्थानिक पहलू नहीं होता? क्या कोई आंचलिक या स्थानीय प्रेरणा अभिव्यक्ति के आकार-प्रकार को निर्धारित नहीं करती? क्या कृति और परिवेश के जैविक संबंधों की अनदेखी से रचना का संदेश संदर्भ रहित होकर अमूर्त नहीं रह जाता? सच तो यह भी है कि राजधानियों का लेखक सिर्फ अपने निकट परिवेश से उत्प्रेरित नहीं होता। अपने मूल और गुमनाम स्त्रोतों से सुलभ हो रही दिशा-दृष्टि भी उसे उच्चतर जीवनमूल्यों से जोड़ती है। प्रस्तुत पुस्तक सृजन और विचार के प्रसंग में, केंद्र और हाशिए के बीच के फासलों पर खोजी नजर डालती है। पुस्तक-संसार में झारखंड की सांस्कृतिक परंपरा पर अधीत सामग्री की कमी नहीं है, लेकिन उसके साहित्य की हिंदी परंपरा के विविध पहलुओं पर समग्र विचार अभी तक प्रतीक्षारत है। निश्चय ही इस पुस्तक में सम्मिलित आलेख सूचनाओं के नए क्षितिजों से निकट परिचय कराएँगे।Item type | Current location | Collection | Call number | Copy number | Status | Date due | Barcode |
---|---|---|---|---|---|---|---|
Books | NASSDOC Library | हिंदी पुस्तकों पर विशेष संग्रह | 891.2 VID-K (Browse shelf) | Available | 54009 |
Browsing NASSDOC Library Shelves , Collection code: हिंदी पुस्तकों पर विशेष संग्रह Close shelf browser
745.0954 PAN-B Bhojpuri panktipavan kalayain: ek parichay | 745.0954 PAN-B Bhojpuri panktipavan kalayain: ek parichay | 808.0420711 MON-S शैक्षणिक लेखन | 891.2 VID-K कलम को तीर होने दो: | 891.43 PAN-B भारतीय समाज और हिंदी उपन्यास | 891.43 SHU-V Vidhya nivas Mishr ke sahitya mein jeevan mulya | 891.4308 SAT-A आज़ाद बचपन की ओर |
श-देशांतर तक पसरे हिंदी-संसार में सृजनशीलता का जो केंद्रीय प्रवाह है, उसमें दूरस्थ अंचलों और दिशाओं की लेखकीय ऊर्जा भी विसर्जित होती है, किंतु उस विराट संगम में जानी-मानी नदियों की जलधाराएँ तो यथेष्ट मान-पहचान पाती हैं, मगर अनगिनत प्रपातों और अंत सलिलाओं के अंशदान की लगातार अनदेखी होती आई है। हिंदी सर्जना के आंचलिक परिदृश्य को अगर समग्रता में परखें तो कई बुनियादी सवाल सिर उठाते हैं; जैसे क्या श्रेष्ठ और प्रभावी कृतियों की अंतर्वस्तु का कोई स्थानिक पहलू नहीं होता? क्या कोई आंचलिक या स्थानीय प्रेरणा अभिव्यक्ति के आकार-प्रकार को निर्धारित नहीं करती? क्या कृति और परिवेश के जैविक संबंधों की अनदेखी से रचना का संदेश संदर्भ रहित होकर अमूर्त नहीं रह जाता? सच तो यह भी है कि राजधानियों का लेखक सिर्फ अपने निकट परिवेश से उत्प्रेरित नहीं होता। अपने मूल और गुमनाम स्त्रोतों से सुलभ हो रही दिशा-दृष्टि भी उसे उच्चतर जीवनमूल्यों से जोड़ती है। प्रस्तुत पुस्तक सृजन और विचार के प्रसंग में, केंद्र और हाशिए के बीच के फासलों पर खोजी नजर डालती है। पुस्तक-संसार में झारखंड की सांस्कृतिक परंपरा पर अधीत सामग्री की कमी नहीं है, लेकिन उसके साहित्य की हिंदी परंपरा के विविध पहलुओं पर समग्र विचार अभी तक प्रतीक्षारत है। निश्चय ही इस पुस्तक में सम्मिलित आलेख सूचनाओं के नए क्षितिजों से निकट परिचय कराएँगे।
There are no comments for this item.