शूद्रों का प्राचीन इतिहास / रामशरण शर्मा
By: शर्मा, रामशरण Sharma, Ramsharan [लेखक, author.].
Publisher: दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2023Description: 338p.ISBN: 9788126707553.Other title: Shudron ka Prachin Itihas.Subject(s): शूद्र -- इतिहास | जाति व्यवस्था -- प्राचीन काल | प्राचीन काल में सामाजिक स्थिति | प्राचीन काल में शूद्र समुदायDDC classification: 305.8 Summary: शूद्रों का प्राचीन इतिहास प्रख्यात इतिहासकार प्रो. रामशरण शर्मा की अत्यन्त मूल्यवान कृति है। शूद्रों की स्थिति को लेकर इससे पूर्व जो कार्य हुआ है, उसमें तटस्थ और तलस्पर्शी दृष्टि का प्रायः अभाव दिखाई देता है। ऐसे कार्य में कहीं 'शूद्र' के दार्शनिक आधार की व्याख्या-भर मिलती है, तो कहीं धर्मसूत्रों में शूद्रों के स्थान की; कहीं शूद्रों के गुलाम नहीं होने को सिद्ध किया गया है, तो कहीं उनके उच्चवर्गीय होने को । कुछ अध्ययनों में प्राचीन भारत के श्रमशील वर्ग से सम्बद्ध सूचनाओं का संकलन-भर हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे अध्ययनों में विभिन्न परिस्थितियों में पैदा हुई उन पेचीदगियों की प्राय: उपेक्षा कर दी गई है, जिनके चलते शूद्र नामक श्रमजीवी वर्ग का निर्माण हुआ। कहना न होगा कि यह कृति उक्त तमाम एकांगिकताओं अथवा प्राचीन भारतीय जीवन के पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित करने की प्रकृति से मुक्त है। लेखक के शब्दों में कहें तो “प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य प्राचीन भारत में शूद्रों की स्थिति का विस्तृत विवेचन करना मात्र नहीं, बल्कि उसके ऐसे आधुनिक विवरणों का मूल्यांकन करना भी है जो या तो अपर्याप्त आँकड़ों के आधार पर अथवा सुधारवादी या सुधारविरोधी भावनाओं से प्रेरित होकर लिखे गए हैं।" संक्षेप में, प्रो. शर्मा की यह कृति ऋग्वैदिक काल से लेकर करीब 500 ई. तक हुए शूद्रों के विकास को सुसम्बद्ध तरीके से सामने रखती है। शूद्र चूँकि श्रमिक वर्ग के थे, अतः यहाँ उनकी आर्थिक स्थिति और उच्च वर्ग के साथ उनके समाजार्थिक रिश्तों के स्वरूप की पड़ताल के साथ-साथ दासों और अछूतों की उत्पत्ति एवं स्थिति की भी विस्तार से चर्चा की गई है।Item type | Current location | Call number | Status | Date due | Barcode |
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Books | NASSDOC Library | 305.8 SHA-S (Browse shelf) | Available | 53443 |
Includes bibliographical references and index.
शूद्रों का प्राचीन इतिहास प्रख्यात इतिहासकार प्रो. रामशरण शर्मा की अत्यन्त मूल्यवान कृति है। शूद्रों की स्थिति को लेकर इससे पूर्व जो कार्य हुआ है, उसमें तटस्थ और तलस्पर्शी दृष्टि का प्रायः अभाव दिखाई देता है। ऐसे कार्य में कहीं 'शूद्र' के दार्शनिक आधार की व्याख्या-भर मिलती है, तो कहीं धर्मसूत्रों में शूद्रों के स्थान की; कहीं शूद्रों के गुलाम नहीं होने को सिद्ध किया गया है, तो कहीं उनके उच्चवर्गीय होने को । कुछ अध्ययनों में प्राचीन भारत के श्रमशील वर्ग से सम्बद्ध सूचनाओं का संकलन-भर हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे अध्ययनों में विभिन्न परिस्थितियों में पैदा हुई उन पेचीदगियों की प्राय: उपेक्षा कर दी गई है, जिनके चलते शूद्र नामक श्रमजीवी वर्ग का निर्माण हुआ। कहना न होगा कि यह कृति उक्त तमाम एकांगिकताओं अथवा प्राचीन भारतीय जीवन के पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित करने की प्रकृति से मुक्त है। लेखक के शब्दों में कहें तो “प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य प्राचीन भारत में शूद्रों की स्थिति का विस्तृत विवेचन करना मात्र नहीं, बल्कि उसके ऐसे आधुनिक विवरणों का मूल्यांकन करना भी है जो या तो अपर्याप्त आँकड़ों के आधार पर अथवा सुधारवादी या सुधारविरोधी भावनाओं से प्रेरित होकर लिखे गए हैं।"
संक्षेप में, प्रो. शर्मा की यह कृति ऋग्वैदिक काल से लेकर करीब 500 ई. तक हुए शूद्रों के विकास को सुसम्बद्ध तरीके से सामने रखती है। शूद्र चूँकि श्रमिक वर्ग के थे, अतः यहाँ उनकी आर्थिक स्थिति और उच्च वर्ग के साथ उनके समाजार्थिक रिश्तों के स्वरूप की पड़ताल के साथ-साथ दासों और अछूतों की उत्पत्ति एवं स्थिति की भी विस्तार से चर्चा की गई है।
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