पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अन्तराविरोध : थलेस से मार्क्स तक / रामविलास शर्मा
By: शर्मा, रामविलास Sharma, Ramvilas [लेखक., author.].
Publisher: दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2016Description: 360p.ISBN: 9788126703074 .Other title: paashchaaty darshan aur saamaajik antaraavirodh.Subject(s): दर्शन, पश्चिमी | सामाजिक विरोधाभास | थेल्स | मार्क्स, कार्ल | दर्शनशास्त्र का इतिहास | भाषा विज्ञानDDC classification: 100 Summary: यह पुस्तक लगभग ढाई हजार साल में फैले पाश्चात्य दर्शन के इतिहास को समेटती है। किन्तु उक्त ऐतिहासिक विकासक्रम का सिलसिलेवार अध्ययन करना इसका उद्देश्य नहीं है। इस लिहाज से देखें तो यह ध्यान में रखना होगा कि रामविलासजी उन इतिहासकारों में से नहीं थे, जो आँकड़ों को अतिरिक्त महत्त्व देते हैं। दर्शन के इतिहास से सम्बन्धित अनिर्णीत विवादों की विवेचना के लक्ष्य के मद्देनजर रामविलासजी अपनी मान्यता प्रस्तुत करने में किसी दुविधा या हिचक का अनुभव नहीं करते । भाषाविज्ञान, पुरातत्त्व, इतिहास, समाजशास्त्र और साहित्य के अद्यतन ज्ञान से लैस होने तथा चिन्तन की द्वन्द्वात्मक पद्धति के सटीक विनियोग के परिणामस्वरूप उनके निष्कर्ष वैचारिक उत्तेजना तो पैदा करते ही हैं, रोचक और ज्ञानवर्द्धक भी होते हैं। मानव-सभ्यता के विकास के क्रम में दर्शन का उद्भव और विकास कैसे हुआ ? क्या यूनानी दर्शन के उद्भव के मूल में मिस्र, बेबिलोन, भारत, चीन, आदि का भी योगदान था ? समाज की ठोस अवस्थाओं के सापेक्ष सन्दर्भ के बिना क्या किसी दार्शनिक चिन्तन, किसी दार्शनिक धारा अथवा अवधारणाओं का अभिप्राय समुचित ढंग से समझा जा सकता है ? इन प्रश्नों के अतिरिक्त, दर्शन को ज्ञान की अन्य शाखाओं और अनुशासनों के साथ किस प्रकार समझा जा सकता है, इस दृष्टि से भी पाश्चात्य दर्शन पर रामविलासजी का लेखन सार्थक और मूल्यवान है। यूनानी दर्शन, रिनासां काल के चिन्तन, दार्शनिक प्रतिपत्तियों पर सामाजिक अन्तर्विरोध के प्रभाव, अधिरचना और बुनियाद के जटिल अन्तर्सम्बन्ध, एशिया - अफ्रीका की सभ्यता के प्रति पश्चिमी दृष्टि के पूर्वग्रह, आदि पर रामविलासजी दो टूक ढंग से अपनी बात कहते हैं। हिन्दीभाषी लोगों के लिए यह पुस्तक दर्शन सम्बन्धी जरूरी ज्ञान का एक सुग्राह्य संचयन है।Item type | Current location | Call number | Status | Date due | Barcode |
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Books | NASSDOC Library | 100 SHA-P (Browse shelf) | Available | 53422 |
Includes bibliographical references and index.
यह पुस्तक लगभग ढाई हजार साल में फैले पाश्चात्य दर्शन के इतिहास को समेटती है। किन्तु उक्त ऐतिहासिक विकासक्रम का सिलसिलेवार अध्ययन करना इसका उद्देश्य नहीं है। इस लिहाज से देखें तो यह ध्यान में रखना होगा कि रामविलासजी उन इतिहासकारों में से नहीं थे, जो आँकड़ों को अतिरिक्त महत्त्व देते हैं। दर्शन के इतिहास से सम्बन्धित अनिर्णीत विवादों की विवेचना के लक्ष्य के मद्देनजर रामविलासजी अपनी मान्यता प्रस्तुत करने में किसी दुविधा या हिचक का अनुभव नहीं करते । भाषाविज्ञान, पुरातत्त्व, इतिहास, समाजशास्त्र और साहित्य के अद्यतन ज्ञान से लैस होने तथा चिन्तन की द्वन्द्वात्मक पद्धति के सटीक विनियोग के परिणामस्वरूप उनके निष्कर्ष वैचारिक उत्तेजना तो पैदा करते ही हैं, रोचक और ज्ञानवर्द्धक भी होते हैं। मानव-सभ्यता के विकास के क्रम में दर्शन का उद्भव और विकास कैसे हुआ ? क्या यूनानी दर्शन के उद्भव के मूल में मिस्र, बेबिलोन, भारत, चीन, आदि का भी योगदान था ? समाज की ठोस अवस्थाओं के सापेक्ष सन्दर्भ के बिना क्या किसी दार्शनिक चिन्तन, किसी दार्शनिक धारा अथवा अवधारणाओं का अभिप्राय समुचित ढंग से समझा जा सकता है ? इन प्रश्नों के अतिरिक्त, दर्शन को ज्ञान की अन्य शाखाओं और अनुशासनों के साथ किस प्रकार समझा जा सकता है, इस दृष्टि से भी पाश्चात्य दर्शन पर रामविलासजी का लेखन सार्थक और मूल्यवान है। यूनानी दर्शन, रिनासां काल के चिन्तन, दार्शनिक प्रतिपत्तियों पर सामाजिक अन्तर्विरोध के प्रभाव, अधिरचना और बुनियाद के जटिल अन्तर्सम्बन्ध, एशिया - अफ्रीका की सभ्यता के प्रति पश्चिमी दृष्टि के पूर्वग्रह, आदि पर रामविलासजी दो टूक ढंग से अपनी बात कहते हैं। हिन्दीभाषी लोगों के लिए यह पुस्तक दर्शन सम्बन्धी जरूरी ज्ञान का एक सुग्राह्य संचयन है।
Hindi.
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