मानव-समाज / राहुल सांकृत्यायन
By: सांकृत्यायन, राहुल Sankrityayan, Rahul.
Publisher: प्रयागराज : लोकभारती प्रकाशन, 2016Description: 251p.ISBN: 9788180312984.Other title: Maanav-Samaaj.Subject(s): सामाजिक वर्ग | भारत | सामाजिक इतिहास | नागरिक आधिकार | वर्ग चेतना | साम्यवाद और समाज | गुजराती साहित्यDDC classification: 305.50954 Summary: मानव मनुष्य-समाज से अलग नहीं रह सकता था, अलग रहने पर उसे भाषा से ही नहीं चिन्तन से भी नाता तोड़ना होता, क्योंकि चिन्तन ध्वनिरहित शब्द है। मनुष्य की हर एक गति पर समाज की छाप है। बचपन से ही समाज के विधि-निषेधों को हम माँ के दूध के साथ पीते हैं, इसलिए हम उनमें से अधिकांश को बन्धन नहीं भूषण के तौर पर ग्रहण करते हैं, किन्तु, वह हमारे कायिक, वाचिक कर्मों पर पग-पग पर अपनी व्यवस्था देते हैं, यह उस वक्त मालूम हो जाता है, जब हम किसी को उनका उल्लघंन करते देख उसे असभ्य कह उठते हैं। सीप में जैसे सीप प्राणी का विकास होता है उसी प्रकार हर एक व्यक्ति का विकास उसके सामाजिक वातावरण में होता है। मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा अपने परिवार, ठाठ-बाट, पाठशाला, क्रीड़ा तथा क्रिया के क्षेत्र में और समाज द्वारा विकसित भाषा को लेकर होती है। 'मानव समाज' हिन्दी में अपने ढंग की अकेली पुस्तक है। हिन्दी और बँगला पाठकों के लिए यह बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है।Item type | Current location | Call number | Status | Date due | Barcode |
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Books | NASSDOC Library | 305.50954 SAN-M (Browse shelf) | Available | 53408 |
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305.50954 IND- India : | 305.50954 IND- India : | 305.50954 ING-N Narrow Fairways | 305.50954 SAN-M मानव-समाज / | 305.50954 SAU-; Economy class society | 305.50954 SHA-; Social stratification in India: issues and themes | 305.50954 SHA-B Bharat mein jati aur arakshan ki rajniti |
Includes bibliographical references and index.
मानव मनुष्य-समाज से अलग नहीं रह सकता था, अलग रहने पर उसे भाषा से ही नहीं चिन्तन से भी नाता तोड़ना होता, क्योंकि चिन्तन ध्वनिरहित शब्द है। मनुष्य की हर एक गति पर समाज की छाप है। बचपन से ही समाज के विधि-निषेधों को हम माँ के दूध के साथ पीते हैं, इसलिए हम उनमें से अधिकांश को बन्धन नहीं भूषण के तौर पर ग्रहण करते हैं, किन्तु, वह हमारे कायिक, वाचिक कर्मों पर पग-पग पर अपनी व्यवस्था देते हैं, यह उस वक्त मालूम हो जाता है, जब हम किसी को उनका उल्लघंन करते देख उसे असभ्य कह उठते हैं। सीप में जैसे सीप प्राणी का विकास होता है उसी प्रकार हर एक व्यक्ति का विकास उसके सामाजिक वातावरण में होता है। मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा अपने परिवार, ठाठ-बाट, पाठशाला, क्रीड़ा तथा क्रिया के क्षेत्र में और समाज द्वारा विकसित भाषा को लेकर होती है। 'मानव समाज' हिन्दी में अपने ढंग की अकेली पुस्तक है। हिन्दी और बँगला पाठकों के लिए यह बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है।
Hindi.
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