भारत में लोकतंत्र की संकल्पना लोहिया का योगदान : लोहिया का योगदान / डॉ लोकेश कुमार चंदेल
By: चंदेल, लोकेश कुमार.
Publisher: New Delhi : Indian Council of Social Science Research Description: 268p.Subject(s): Political candidates -- India | Political Advisors -- India | Democracy -- IndiaDDC classification: RC.0161 Summary: भारत में लोकतंत्र की संकल्पना : लोहिया का योगदान' विषय पर किए शोध में सामने आया कि विश्व की सारी शासन प्रणालियों में सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली 'लोकतांत्रिक शासन' प्रणाली है। यह सत्य है कि लोकतंत्र युद्ध की संभावनाओं को समाप्त नहीं कर सका, प्रशासनिक भ्रष्टाचार,अकर्मण्यता और अकुशलता को दूर नहीं कर सका, लेकिन इसने उन अन्यायों, अत्याचारों और दुखों का अंत किया है, जो दूसरे शासन में व्याप्त रहते हैं। ब्रिटिश राजनीतिक चिंतक जॉन लॉक के सिद्धांतों में व्यक्तिवाद, उदारवाद, संविधानवाद और मर्यादित सम्प्रभुता के सिद्धांतों का समावेश है। यही सिद्धांत आज भी लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला है। वस्तुतः लॉक ही वह दार्शनिक है, जिन्होंने बताया कि सारी राजनीतिक सत्ता का स्रोत जनता है। उन्होंने ही इस बात पर बल दिया कि शासन के सभी कार्यों का मूल्यांकन सकिय नागरिकों के निकाय को करना चाहिए। उनका मत था कि यदि शासन अपनी सत्ता का अतिकमण करता है या उस न्यास का उल्लंघन करता है, जो समुदाय ने उस पर भरोसा किया था, तो नागरिकों के समुदाय को प्रतिरोध करने का अधिकार है। बहरहाल, प्रजातंत्र का जन्म ईसा से सात आठ सौ वर्ष पूर्व यूनान के एथेंस नगर में हुआ। ऐसे जन समूह के निवास को नगर राज्य कहा जाता था। यहां के लोगों ने अपने राजनीतिक संगठन कायम किए। नगर राज्य में ग्रामीण तथा शहरी दोनों प्रकार की जनता निवास करती थी। एथेंस की राज्य व्यवस्था में सभी नागरिक एकक््लीजिया नामक परिषद में इकट्ठे होकर नगर में शासन व्यवस्था चलाने पर विचार-विमर्श किया करते थे। वहां के सभी नागरिकों को शासन में भागीदारी निभाने का बारी-बारी से मौका दिया जाता था। 464-629 ई.पू. में एथेंस की प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था उन्नति के शिखर पर विराजमान थी। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़ी कमी दासों और महिलाओं को नागरिक नहीं माना जाता था। इसी तरह भारत में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुत प्राचीन है। शोध के दौरान सामने आया कि प्राचीनकाल में जनतांत्रिक व्यवस्था में वर्तमान की तरह शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनकी चुनाव प्रकिया वर्तमान व्यवस्था से थोड़ा भिन्न थी। सभी नागरिकों को वोट देने के अधिकार नहीं दिए गए थे। ऋग्वेद और कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है। वर्तमान संसद की तरह प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया गया था, जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता है। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इनके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय की सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केन्द्रीय परिषद में सात हजार सात सदस्य थे। वहीं यौधेय की केन्द्रीय परिषद् के पांच हजार सदस्य थे। वर्तमान संसद की तरह ही केन्द्रीय परिषद की बैठकें नियमित होती थी। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष में जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमती न होने पर बहुमत प्रकिया अपनाई जाती थी। तत्कालीन समय में वोट को छन््द कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख रेख करने वाला भी एक अधिकारी होता था, जिसे शलाकाग्राहक कहते थे। प्राचीनकाल में राजा को एक बार चुने जाने के बावजूद अन्याय करने तथा धर्मविरूद्ध शासन करने के कारण ऋषि-मुनियों, विद्वानों और प्रजाजनों द्वारा विद्रोह किए जाने पर गददी से उतारा भी जा सकता था। वेन और नहुष जैसे राजाओं को पदच्युत कर दिया गया था। चुनाव के बाद राजा वैसे ही शपथ लेता था, जैसे आज देश के प्रधानमंत्री पदभार संभालने से पहले लेते हैं। यह बात बड़े रोचक ढंग से वेदों में उललेखित है। उस समय वरिष्ठ लोगों का आशीर्वाद भी यही होता था कि तुम्हें प्रजाजनों की लोकप्रियता प्राप्त हो। आज भारत का गणतंत्र दुनियाभर में मजबूत बनकर उभर रहा है। भारत की सबसे अहम कामयाबी है कि यहां लोकतंत्र बना हुआ है। लोकतंत्र के बने रहने से ही आज देश विकास की राह पर चल रहा है। आजादी के छह दशक से भी अधिक समय गुजरने के बाद भी तमाम अवरोधों के बावजूद लोकतंत्र कायम है। भारत में आपातकाल के कुछ साल निकाल दिए जाए तो पता चलता है कि भारत में लोकतांत्रिक मूल्य पुष्पित और पल्लिवत हुए हैं। शोध में सामने आया कि डॉ. राममनोहर लोहिया कहते थे कि 'जालिम वहां पलते हैं, जहां दब्बू रहते हैं। किसी भी राजनीतिक दल की सबसे बड़ी कसौटी होती है, सत्ता प्राप्त करने की इच्छा। 'जब जनता और सारी मानव जाति के स्वत्व का क्षय हो रहा हो तो विपक्षी दल बनने की इच्छा करना पाप है। किसी भी लोकतांत्रिक कार्यवाही का यह प्रथम कर्तव्य है कि जनता को गरमाए ताकि वह नियति का बेबस औजार बनने के बजाय नियति को अपने हाथ में लेने को तैयार हो।! सरकार की गलत नीतियों की आलोचना संसद से लेकर सड़क तक होना चाहिए। जब लोहिया जर्मनी में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। इस दौरान उनके नाजी मित्र ने उनके सामने एक प्रस्ताव रखा कि (वे भारत में नाजी दर्शन का प्रचार करें।'इस पर लोहिया ने दो टूक शब्दों में कहा कि जर्मनी के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश में वंश और नस्ल की श्रेष्ठता मानने वाला दर्शन शायद ही स्वीकृत होगा। इस प्रकार उन्होंने तानाशाह को नकार कर समाजवादी लोकतंत्र को अपनाया। इससे यह पता चलता है कि वे तानाशाही-जारशाही के बजाए लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में विश्वास करते थे। शोध में यह भी सामने आया कि डॉ. लोहिया ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के साथ-साथ गोवा में भी पुर्तगाली सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजाया था। इसका प्रभाव पड़ा कि गोवा के कमजोर लोगों में आत्मविश्वास और स्फूर्ति आ गई। सन 4965-66 में मूल्य वृद्धि एवं खाद्यान्नों के अभाव के कारण पूरे उत्तर भारत में जबरदस्त आंदोलन हुए। इसमें डॉ. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। देशभर में हड़तालों की बाढ़ आ गई। रणनीतिक संघर्ष के कार्यकम पर राजी होने वाले ज्यादा से ज्यादा वाम, समाजवादी और जनतांत्रिक पार्टियों को एकजुट किया गया। जो एकता, संघर्ष करके बनाई गई थी। धीरे-धीरे चुनावी चाल में बदल गई। कई जगह चुनावी मोर्च बन गए। ये तालमेल और मोर्चे आखिर में कांग्रेस को करारी हार देने में तथा कई राज्यों में गैर कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाव रहे। चुनाव पूर्व लोहिया ने पूरे देशभर में दौरा किया। उन्होंने 'कांग्रेस हटाओ, देश बचाओं'का नारा बुलंद किया। बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश,तमिलनाडू, हरियाणा और पंजाब में गैर कांग्रेस सरकारें बनीं। जो देश में गैर कांग्रेसवाद की हवा का पहला झोंका था। डॉ. लोहिया का स्पष्ट मानना था कि दुनिया में लोकतंत्र के अलावा दूसरी शासन व्यवस्था उपयुक्त नहीं है। बिना खून बहे, गोली चले बड़ी सरलता से मतपेटी के माध्यम से सत्ता का हस्तांतरण होता है। सरकार व्यवस्थापिका के प्रति और व्यवस्थापिका जनता के प्रति जवाबदेह होती है। उनका हिंसात्मक साधनों में विश्वास नहीं था। वे निजी स्कूलों को खत्म करने और सरकारी या नगरपालिकाओं के माध्यम से खोले जाने वाले स्कूलों के समर्थन में थे, ताकि उनमें गरीब किसान और राष्ट्रपति का बेटा एक साथ पढ़ सकें। उन्होंने संसद में प्रश्न, उपप्रश्न, स्थगन प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, आधे घंटे की चर्चा, सभा त्याग आदि हर संभव मुक्ति और प्रयुक्ति की बहुत ही चतुराई और कुशलता से प्रयोग करते हुए अपने लक्ष्य को सिद्ध करने के प्रयास किए, जिससे सरकारी प्रशासन परेशान हो जाया करता था। उनकी वजह से लोकसभा में विरोधी पक्षों की धाक बहुत बढ़ी थी। वे कभी अजीज बनकर तो कभी आकामक होकर, कभी मर्मभेदक होकर तो कभी नवविचारों से ओतप्रोत होकर तो कभी चुभती धारा प्रवाह शैली में दिए गए भाषणों से सरकार और विरोधी पक्षों को एक साथ प्रभावित करते थे।Item type | Current location | Collection | Call number | Status | Date due | Barcode |
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Research Reports | NASSDOC Library | Post Doctoral Research Fellowship Reports | RC.0161 (Browse shelf) | Not For Loan | 52322 |
भारत में लोकतंत्र की संकल्पना : लोहिया का योगदान' विषय पर किए शोध में सामने आया कि विश्व की सारी शासन प्रणालियों में सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली 'लोकतांत्रिक शासन' प्रणाली है। यह सत्य है कि लोकतंत्र युद्ध की संभावनाओं को समाप्त नहीं कर सका, प्रशासनिक भ्रष्टाचार,अकर्मण्यता और अकुशलता को दूर नहीं कर सका, लेकिन इसने उन अन्यायों, अत्याचारों और दुखों का अंत किया है, जो दूसरे शासन में व्याप्त रहते हैं।
ब्रिटिश राजनीतिक चिंतक जॉन लॉक के सिद्धांतों में व्यक्तिवाद, उदारवाद, संविधानवाद और मर्यादित सम्प्रभुता के सिद्धांतों का समावेश है। यही सिद्धांत आज भी लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला है। वस्तुतः लॉक ही वह दार्शनिक है, जिन्होंने बताया कि सारी राजनीतिक सत्ता का स्रोत जनता है। उन्होंने ही इस बात पर बल दिया कि शासन के सभी कार्यों का मूल्यांकन सकिय नागरिकों के निकाय को करना चाहिए। उनका मत था कि यदि शासन अपनी सत्ता का अतिकमण करता है या उस न्यास का उल्लंघन करता है, जो समुदाय ने उस पर भरोसा किया था, तो नागरिकों के समुदाय को प्रतिरोध करने का अधिकार है। बहरहाल, प्रजातंत्र का जन्म ईसा से सात आठ सौ वर्ष पूर्व यूनान के एथेंस नगर में हुआ। ऐसे जन समूह के निवास को नगर राज्य कहा जाता था। यहां के लोगों ने अपने राजनीतिक संगठन कायम किए। नगर राज्य में ग्रामीण तथा शहरी दोनों प्रकार की जनता निवास करती थी। एथेंस की राज्य व्यवस्था में सभी नागरिक एकक््लीजिया नामक परिषद में इकट्ठे होकर नगर में शासन व्यवस्था चलाने पर विचार-विमर्श किया करते थे। वहां के सभी नागरिकों को शासन में भागीदारी निभाने का बारी-बारी से मौका दिया जाता था। 464-629 ई.पू. में एथेंस की प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था उन्नति के शिखर पर विराजमान थी। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़ी कमी दासों और महिलाओं को नागरिक नहीं माना जाता था। इसी तरह भारत में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुत प्राचीन है। शोध के दौरान सामने आया कि प्राचीनकाल में जनतांत्रिक व्यवस्था में वर्तमान की तरह शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनकी चुनाव प्रकिया वर्तमान व्यवस्था से थोड़ा भिन्न थी। सभी नागरिकों को वोट देने के अधिकार नहीं दिए गए थे। ऋग्वेद और कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है। वर्तमान संसद की तरह प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया गया था, जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता है। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इनके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय की सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केन्द्रीय परिषद में सात हजार सात सदस्य थे। वहीं यौधेय की केन्द्रीय परिषद् के पांच हजार सदस्य थे। वर्तमान संसद की तरह ही केन्द्रीय परिषद की बैठकें नियमित होती थी। किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष में जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमती न होने पर बहुमत प्रकिया अपनाई जाती थी। तत्कालीन समय में वोट को छन््द कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख रेख करने वाला भी एक अधिकारी होता था, जिसे शलाकाग्राहक कहते थे।
प्राचीनकाल में राजा को एक बार चुने जाने के बावजूद अन्याय करने तथा धर्मविरूद्ध शासन करने के कारण ऋषि-मुनियों, विद्वानों और प्रजाजनों द्वारा विद्रोह किए जाने पर गददी से उतारा भी जा सकता था। वेन और नहुष जैसे राजाओं को पदच्युत कर दिया गया था। चुनाव के बाद राजा वैसे ही शपथ लेता था, जैसे आज देश के प्रधानमंत्री पदभार संभालने से पहले लेते हैं। यह बात बड़े रोचक ढंग से वेदों में उललेखित है। उस समय वरिष्ठ लोगों का आशीर्वाद भी यही होता था कि तुम्हें प्रजाजनों की लोकप्रियता प्राप्त हो। आज भारत का गणतंत्र दुनियाभर में मजबूत बनकर उभर रहा है। भारत की सबसे अहम कामयाबी है कि यहां लोकतंत्र बना हुआ है। लोकतंत्र के बने रहने से ही आज देश विकास की राह पर चल रहा है। आजादी के छह दशक से भी अधिक समय गुजरने के बाद भी तमाम अवरोधों के बावजूद लोकतंत्र कायम है। भारत में आपातकाल के कुछ साल निकाल दिए जाए तो पता चलता है कि भारत में लोकतांत्रिक मूल्य पुष्पित और पल्लिवत हुए हैं।
शोध में सामने आया कि डॉ. राममनोहर लोहिया कहते थे कि 'जालिम वहां पलते हैं, जहां दब्बू रहते हैं। किसी भी राजनीतिक दल की सबसे बड़ी कसौटी होती है, सत्ता प्राप्त करने की इच्छा। 'जब जनता और सारी मानव जाति के स्वत्व का क्षय हो रहा हो तो विपक्षी दल बनने की इच्छा करना पाप है। किसी भी लोकतांत्रिक कार्यवाही का यह प्रथम कर्तव्य है कि जनता को गरमाए ताकि वह नियति का बेबस औजार बनने के बजाय नियति को अपने हाथ में लेने को तैयार हो।! सरकार की गलत नीतियों की आलोचना संसद से लेकर सड़क तक होना चाहिए। जब लोहिया जर्मनी में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। इस दौरान उनके नाजी मित्र ने उनके सामने एक प्रस्ताव रखा कि (वे भारत में नाजी दर्शन का प्रचार करें।'इस पर लोहिया ने दो टूक शब्दों में कहा कि जर्मनी के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश में वंश और नस्ल की श्रेष्ठता मानने वाला दर्शन शायद ही स्वीकृत होगा। इस प्रकार उन्होंने तानाशाह को नकार कर समाजवादी लोकतंत्र को अपनाया। इससे यह पता चलता है कि वे तानाशाही-जारशाही के बजाए लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में विश्वास करते थे।
शोध में यह भी सामने आया कि डॉ. लोहिया ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के साथ-साथ गोवा में भी पुर्तगाली सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजाया था। इसका प्रभाव पड़ा कि गोवा के कमजोर लोगों में आत्मविश्वास और स्फूर्ति आ गई। सन 4965-66 में मूल्य वृद्धि एवं खाद्यान्नों के अभाव के कारण पूरे उत्तर भारत में जबरदस्त आंदोलन हुए। इसमें डॉ. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। देशभर में हड़तालों की बाढ़ आ गई। रणनीतिक संघर्ष के कार्यकम पर राजी होने वाले ज्यादा से ज्यादा वाम, समाजवादी और जनतांत्रिक पार्टियों को एकजुट किया गया। जो एकता, संघर्ष करके बनाई गई थी। धीरे-धीरे चुनावी चाल में बदल गई। कई जगह चुनावी मोर्च बन गए। ये तालमेल और मोर्चे आखिर में कांग्रेस को करारी हार देने में तथा कई राज्यों में गैर कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाव रहे। चुनाव पूर्व लोहिया ने पूरे देशभर में दौरा किया। उन्होंने 'कांग्रेस हटाओ, देश बचाओं'का नारा बुलंद किया। बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश,तमिलनाडू, हरियाणा और पंजाब में गैर कांग्रेस सरकारें बनीं। जो देश में गैर कांग्रेसवाद की हवा का पहला झोंका था।
डॉ. लोहिया का स्पष्ट मानना था कि दुनिया में लोकतंत्र के अलावा दूसरी शासन व्यवस्था उपयुक्त नहीं है। बिना खून बहे, गोली चले बड़ी सरलता से मतपेटी के माध्यम से सत्ता का हस्तांतरण होता है। सरकार व्यवस्थापिका के प्रति और व्यवस्थापिका जनता के प्रति जवाबदेह होती है। उनका हिंसात्मक साधनों में विश्वास नहीं था। वे निजी स्कूलों को खत्म करने और सरकारी या नगरपालिकाओं के माध्यम से खोले जाने वाले स्कूलों के समर्थन में थे, ताकि उनमें गरीब किसान और राष्ट्रपति का बेटा एक साथ पढ़ सकें। उन्होंने संसद में प्रश्न, उपप्रश्न, स्थगन प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, आधे घंटे की चर्चा, सभा त्याग आदि हर संभव मुक्ति और प्रयुक्ति की बहुत ही चतुराई और कुशलता से प्रयोग करते हुए अपने लक्ष्य को सिद्ध करने के प्रयास किए, जिससे सरकारी प्रशासन परेशान हो जाया करता था। उनकी वजह से लोकसभा में विरोधी पक्षों की धाक बहुत बढ़ी थी। वे कभी अजीज बनकर तो कभी आकामक होकर, कभी मर्मभेदक होकर तो कभी नवविचारों से ओतप्रोत होकर तो कभी चुभती धारा प्रवाह शैली में दिए गए भाषणों से सरकार और विरोधी पक्षों को
एक साथ प्रभावित करते थे।
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