विकास की चक्की में पिसते लोग : इक्कीसवीं सदी के भारत में जातीय, जनजातीय और वर्गीय असमानता
By: शाह, अल्पा Shah, Alpa.
Publisher: नयी दिल्ली ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 2019Description: xi 336p.ISBN: 9780190120405.Other title: Vikas Ki Chakki Main Piste Log: Ground down by growth by Alpa Shah and others.Subject(s): सामाजिक स्थिति (Social conditions) -- आर्थिक इतिहास (Economic history) -- जाति (Poor) -- गरीब (Caste) -- समानता (Equality) -- भारत (India)DDC classification: 305.51220954 Summary: विकास की अवधारणा वृद्धि से अलग है. जबकि आर्थिक वृद्धि को ही विकास के रूप में दर्शाया जा रहा है. अपने गहन शोध के जरिए यह पुस्तक भारतीय समाज में बढ़ती असमानताओं का आंकलन और विश्लेषण करती है. यह देश के अलग-अलग हिस्सों में जातियों, जनजातियों और वर्गीय असमानताओं पर किए गए अध्ययन को प्रस्तुत करती है. पुस्तक हमें बताती है कि 21वीं सदी में किस तरह से एक बड़ी आबादी का विकास सिमटता जा रहा है और असमानता की खाईं बढ़ती जा रही है. एक तरफ संपदाओं से भरा देश है, दूसरी तरफ किसानों, मजदूरों और आदिवासियों की तकरीबन 80 करोड़ आबादी दो डॉलर से भी कम आमदनी पर गुजारा कर रही है. पुस्तक इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करती है कि वे जो भारतीय अर्थतंत्र को मजबूत बना रहे हैं आख़िर क्यों आर्थिक तौर पर कमजोर होते जा रहे हैं. साथ ही यह गरीबी और सामाजिक भेदभावों के अंतर्संबंधों पर भी चर्चा करती है. यह पुस्तक उस आर्थिक विकास पर सवाल खड़ा करती है जो बड़ी आबादी में बदहाल बना रहा है.Item type | Current location | Collection | Call number | Status | Notes | Date due | Barcode |
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Books | NASSDOC Library | हिंदी पुस्तकों पर विशेष संग्रह | 305.51220954 SHA-V (Browse shelf) | Available | हिंदी पुस्तकों पर विशेष संग्रह | 50970 |
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305.4880954 MEN-; Janjatiya mahilaon ki rajnitik jagrukata | 305.50954 SHA-B Bharat mein jati aur arakshan ki rajniti | 305.51220954 GHU-B भारत में जाति एवं प्रजाति | 305.51220954 SHA-V विकास की चक्की में पिसते लोग | 305.554 SHU-; Prabandhkiya varg ka samajik udbhav | 305.560954 CHA-A आर्थिक सुधार और सामाजिक अपवर्जन | 305.5630954 SIN-P Palane se kabar tak = Farm labor; Farm workers: grameen paridrashya me krishi m |
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विकास की अवधारणा वृद्धि से अलग है. जबकि आर्थिक वृद्धि को ही विकास के रूप में दर्शाया जा रहा है. अपने गहन शोध के जरिए यह पुस्तक भारतीय समाज में बढ़ती असमानताओं का आंकलन और विश्लेषण करती है. यह देश के अलग-अलग हिस्सों में जातियों, जनजातियों और वर्गीय असमानताओं पर किए गए अध्ययन को प्रस्तुत करती है. पुस्तक हमें बताती है कि 21वीं सदी में किस तरह से एक बड़ी आबादी का विकास सिमटता जा रहा है और असमानता की खाईं बढ़ती जा रही है. एक तरफ संपदाओं से भरा देश है, दूसरी तरफ किसानों, मजदूरों और आदिवासियों की तकरीबन 80 करोड़ आबादी दो डॉलर से भी कम आमदनी पर गुजारा कर रही है. पुस्तक इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करती है कि वे जो भारतीय अर्थतंत्र को मजबूत बना रहे हैं आख़िर क्यों आर्थिक तौर पर कमजोर होते जा रहे हैं. साथ ही यह गरीबी और सामाजिक भेदभावों के अंतर्संबंधों पर भी चर्चा करती है. यह पुस्तक उस आर्थिक विकास पर सवाल खड़ा करती है जो बड़ी आबादी में बदहाल बना रहा है.
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